
उड़ते तो आकाश में है
पर डोर किसी और के हाथ में होता है
स्वाधीनता क्या है, उस पतंग से पूछो
अपनों को काटकर जिसे ज़िंदा रहना पड़ता है
हमने भी कह दिया कि जाओ ...
क्योंकि,
एक तरफ,
शिकायत कुछ जमी सी थी
कोशिश कुछ थमी सी थी
और इधर,
रात आंखें कुछ नमी सी थी
सुबह वजह कुछ कमी सी थी
ख्वाबों की उम्र मत पूछो
दिल को बुरा न लग जाए कहीं
फासले ने तकलीफ से पूछा
तुमने नजदीकियां भी झेला होगा कहीं
मैने सफेद फूलों से पूछा
इतने रंगों के बीच
सफेदी भाता है तुम्हे?
फूल मुस्कुराते हुए कहा,
हम आईने देखते ही कहां,
जो अपने रंग का पता चले
आग मुझमें भी है
लेकिन जब राख के हर कण
प्रश्न चिन्ह बनकर सामने खड़ा हो जाता है
मैं बारिश बन जाता हूँ
हर उस दहाड़ के पीछे,
एक बल जरूर है
बस इतना दिखा दो,
कहीं वो छल तो नहीं
ऊपर दिखता पहाड़,
नीचे दलदल तो नहीं
दावत दी थी अंधेरे ने मुझे,
दो हाथ पत्ते खेलने की
मना भी कैसे करता भला
दाव एक मुट्ठी उजाले की थी
Jayanta Roy, a Naval Architect by profession, is also an occasional writer — which is one of his cherished hobbies. His work has taken him to various towns and metro cities in India as well as abroad, and those experiences often find a poetic reflection in his writings.
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