प्रलय – POEM BY ARNAB MOITRO

यह कैसा गहरा सन्नाटा है
जो पार नज़र के जाता है?
फूल-पत्र सब मृत पड़े
वृक्ष तरु सब स्थिर खड़े
चेतना के कोई शब्द न सुन पाते मेरे कर्ण
सहम उठता मन कर के इस अपकर्ष का स्मरण
काट दिए सारे जंगल
बना दिये कितने मरु स्थल
बचे हुए वन भी अब तो हैं सुलगते से
सूर्य-चंद्र भी लगते हैं आग उगलते से
बांध दी सारी नदियाँ
नीरस की सभी कलियाँ
शुष्क टहनियों पर बैठे पक्षी भी हैं पाषाण से
कारखानों के कर्कश स्वर चुभते मानो बाण से
जीव-जंतुओं से छीने मैदान
सब जगह फैली खान-खदान
क्षतिकर रसायन छिडककर निचोड़े सब खेत-खलिहान
स्वार्थ के होड़ में किये अपने भी लहूलुहान
सुस्त मेरे सब अंग हुए
क्षीण धरा के रंग हुए
आशा की किरणें भी ढकती धुएं की चादर से
प्रकृति विद्रोह करने लगी मानवता के निरादर से
उठता समुद्र खाने साहिल को
षठ ऋतुओं का चक्र शिथिल हो
देता किसी गंभीर सर्वनाश का आभास
मानवता करने लगती अपनी सुरक्षा का प्रयास
जीव जंतुओं की विविधता का
वसुंधरा की सुंदरता का
स्वतंत्र सम्मिलित सहजीवन का हो रहा है क्षय
इस अत्याचार को नियंत्रित करने आयी पर्यावरण प्रलय
रे मनुष्य! तुझे इससे क्यों बचना
यह है तेरी ही रचना
उभर न पाए ऐसी पापी प्रजाति
यही है मेरी कामना
प्रकृति पर किये अनेकों अपकार
अब सब पारितंत्रों का हो रहा विकार
जब चाहूं ओर मचे हाहाकार
करता हूँ मैं अपने पतन को स्वीकार
                 -Arnab Moitro

About the poet :
Arnab Moitro (29 yrs) is an engineer by profession. He had his M.Tech degree (Aerospace Engg.) from IIT Chennai and then had a stint at IISc Bangalore as Research Assistant. Currently he is persuing his Ph.D degree at US.
Poetry is one of his likings beyond his domain subject. He also nurtures interests in macro-economics, sociology, history. He is an avid blogger. He also plays chess and Bridge and played at all India compititions.
He is the son of a GZA member.
प्रलय – POEM BY ARNAB MOITRO